Students and the Three-Language Controversy: Rethinking Educational Priorities

छात्र और त्रिभाषा विवाद : शिक्षा की प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार आवश्यक

परिप्रेक्ष्य और विवाद का मूल

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के तहत प्रस्तावित त्रिभाषा सूत्र केंद्र और तमिलनाडु सरकार के मध्य विवाद का प्रमुख कारण बना हुआ है। राज्य सरकार हिंदी को अनिवार्य करने का कड़ा विरोध कर रही है, क्योंकि उसका मानना है कि यह क्षेत्रीय भाषाओं और मातृभाषा की प्रधानता को कमजोर कर सकता है। इस बहस का सबसे अधिक प्रभाव सरकारी विद्यालयों में अध्ययनरत छात्रों पर पड़ रहा है, जो तमिलनाडु के कुल छात्र नामांकन का लगभग 55% हैं।

छात्रों पर त्रिभाषा नीति का प्रभाव

  • सरकारी विद्यालयों के छात्रों के लिए स्कूली शिक्षा ही उनके संपूर्ण शैक्षिक अनुभव का आधार होती है, जबकि निजी विद्यालयों के छात्र अतिरिक्त कोचिंग या भाषा प्रशिक्षण का लाभ उठा सकते हैं।
  • यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि क्या दो की बजाय तीन भाषाएँ सीखने से छात्रों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में वृद्धि होगी या यह उनके लिए अतिरिक्त बोझ साबित होगा।
  • शिक्षा विशेषज्ञों का मत है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अधिक महत्वपूर्ण है, बजाय इसके कि छात्रों पर अतिरिक्त भाषाओं का बोझ डाल दिया जाए।

त्रिभाषा सूत्र लागू करने की चुनौतियाँ

1. शिक्षा प्रणाली पर अतिरिक्त भार

पहले से ही संसाधन-संकट झेल रहे सरकारी विद्यालयों में एक अतिरिक्त भाषा लागू करना व्यावहारिक चुनौती है। शिक्षकों की कमी और सीमित शिक्षण अवधि के बीच तीसरी भाषा की पढ़ाई करने से अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर ध्यान केंद्रित करने में बाधा उत्पन्न हो सकती है।

2. तकनीकी युग में भाषा कौशल की प्रासंगिकता

कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और तकनीकी विकास के कारण भाषा दक्षता की आवश्यकता धीरे-धीरे कम हो रही है। वैश्विक प्रतिस्पर्धा के दृष्टिकोण से छात्रों को डिजिटल साक्षरता, गणितीय कौशल और आलोचनात्मक चिंतन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

3. मातृभाषा में मज़बूत आधार आवश्यक

शोध दर्शाते हैं कि दूसरी या तीसरी भाषा में दक्षता हासिल करने से पहले मातृभाषा में मज़बूत आधार आवश्यक होता है। 2024 के ASER सर्वेक्षण के अनुसार, तमिलनाडु में तीसरी कक्षा के 88% छात्र बुनियादी साक्षरता कौशल में पिछड़े हुए हैं। यदि मूलभूत शिक्षा कमजोर होगी, तो अन्य भाषाओं का ज्ञान भी सीमित प्रभाव डालेगा।

भाषा सीखने की वास्तविकता

व्यावसायिक आवश्यकताओं के कारण कई वयस्क तमिलनाडु से बाहर जाने पर हिंदी, मराठी या अन्य भाषाएँ सीखते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें औपचारिक शिक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ती।

भाषा सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया परिवेश और आवश्यकता पर आधारित होती है, न कि थोपे गए पाठ्यक्रमों से।

अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले छात्रों को भी अंग्रेजी में समुचित दक्षता हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, जो शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाता है।

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता

  • त्रिभाषा नीति लागू करने की बजाय शिक्षा की गुणवत्ता और सीखने के परिणामों को सुदृढ़ करने पर बल देना चाहिए।
  • विद्यालयों में पहले से ही सीमित समय में विषयों को कवर करने की चुनौती होती है, ऐसे में तीसरी भाषा के लिए समय निकालना अन्य महत्वपूर्ण विषयों के गहन अध्ययन में बाधा डाल सकता है।
  • सबसे महत्वपूर्ण चुनौती तीसरी भाषा के योग्य शिक्षकों की उपलब्धता है, विशेषकर तब जब छात्र विभिन्न भाषाएँ चुनते हैं।

संस्कृति, राष्ट्रीय एकता और रोजगार के अवसर

भाषा हमारी सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग है, किंतु राष्ट्रीय एकता को सुनिश्चित करने के लिए कोई एक भाषा थोपना अनिवार्य नहीं है।

तमिलनाडु के छात्र राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहले से ही सफलतापूर्वक प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, यह इस बात का प्रमाण है कि एक अतिरिक्त भाषा उनकी सफलता की अनिवार्य शर्त नहीं है।

अंग्रेजी भाषा में दक्षता को बढ़ावा देना अधिक व्यावहारिक होगा, क्योंकि यह वैश्विक रोजगार के अवसरों को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकती है।

व्यावहारिक समाधान : संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक

  • तीसरी भाषा को अनिवार्य बनाने के बजाय, हिंदी को माध्यमिक स्तर पर वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाया जा सकता है।
  • यह प्रयोग प्रथम चरण में जिला मुख्यालयों से प्रारंभ किया जाए और बाद में छात्रों की मांग के अनुसार विस्तार किया जाए।
  • कठोर राजनीतिक रुख अपनाने से छात्रों के शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, इसलिए शिक्षा नीति में संवाद और समन्वय आवश्यक है।

यह मुद्दा टकराव की बजाय रचनात्मक चर्चा एवं व्यावहारिक समाधानों के माध्यम से सुलझाया जाना चाहिए, ताकि छात्रों का भविष्य सुरक्षित रह सके।

निष्कर्ष : शिक्षा नीति में व्यावहारिकता और समावेशिता आवश्यक

त्रिभाषा नीति को लेकर तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच मतभेद का सीधा प्रभाव छात्रों की शिक्षा और उनके करियर पर पड़ सकता है। नीति-निर्माताओं को यह समझना होगा कि भाषा का ज्ञान तब तक प्रभावी नहीं होता जब तक कि शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता सुदृढ़ न हो।

इसलिए, शिक्षा नीति को ऐसे दिशा-निर्देशों के अनुरूप बनाया जाना चाहिए, जो—

  • छात्रों की मूलभूत शिक्षा को मजबूत करें और उन्हें जटिल विषयों की समझ विकसित करने में सहायता करें।
  • अतिरिक्त भाषा सीखने को एक अनिवार्यता की बजाय स्वैच्छिक और मांग-आधारित प्रक्रिया बनाएं।
  • शिक्षा प्रणाली को राजनीतिक विवादों से मुक्त रखते हुए, छात्रों के दीर्घकालिक हितों को प्राथमिकता दें।

यदि शिक्षा नीति व्यावहारिक और समावेशी दृष्टिकोण अपनाती है, तो इससे न केवल छात्रों का भविष्य उज्ज्वल होगा, बल्कि राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर भारतीय शिक्षा प्रणाली की साख भी सुदृढ़ होगी।

आपकी राय क्या है?

क्या आप मानते हैं कि त्रिभाषा नीति छात्रों के लिए लाभदायक होगी, या यह उनके लिए अतिरिक्त बोझ बनेगी? हमें अपने विचार कमेंट सेक्शन में बताएं!

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