आर्द्रभूमि संरक्षण: आवश्यकताएँ, चुनौतियाँ और समाधान
भूमिका
आर्द्रभूमियाँ पारिस्थितिकी तंत्र का अभिन्न अंग हैं, जो जल संरक्षण, जैव विविधता संवर्धन और जलवायु संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हाल ही में मेघालय में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम ने भारत में आर्द्रभूमियों के संरक्षण की जटिलताओं को उजागर किया है, जिससे इनके महत्व और सशक्त सुरक्षा उपायों की आवश्यकता को बल मिला है।
भारत में आर्द्रभूमि संरक्षण की वर्तमान स्थिति
भारत रामसर कन्वेंशन का हस्ताक्षरकर्ता होते हुए भी अपनी आर्द्रभूमियों के क्षरण से जूझ रहा है। शहरीकरण, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसे कारक इन पारिस्थितिकीय संपदाओं के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न कर रहे हैं। संरक्षण के लिए नीतिगत प्रयासों की आवश्यकता है, जिससे सतत विकास लक्ष्यों (SDG) के साथ इनका समुचित समायोजन हो सके।
आर्द्रभूमियों पर मंडराते खतरे
- आर्द्रभूमियाँ विश्व के 12.1 मिलियन वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को आच्छादित करती हैं और वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का 40.6% योगदान देती हैं।
- तेजी से होते शहरीकरण, औद्योगीकरण और जलवायु परिवर्तन ने इनके अस्तित्व को संकटग्रस्त कर दिया है।
- 1900 के बाद से वैश्विक स्तर पर 50% आर्द्रभूमियाँ नष्ट हो चुकी हैं, और 1970-2015 के बीच इनके सतही क्षेत्र में 35% की गिरावट आई है।
- 1970 के बाद से अंतर्देशीय आर्द्रभूमि प्रजातियों की जनसंख्या में 81% तथा तटीय प्रजातियों की संख्या में 36% की कमी दर्ज की गई है।
संरक्षण में आने वाली चुनौतियाँ
- आर्द्रभूमियाँ जल प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन शमन और शहरी बुनियादी ढांचे के समर्थन में अहम भूमिका निभाती हैं, किंतु इनके संरक्षण हेतु नीति-निर्माण अभी भी सीमित है।
- 2022 के रामसर सम्मेलन में यह प्रतिपादित किया गया कि आर्द्रभूमि संरक्षण को वैश्विक पर्यावरणीय पहलों के साथ एकीकृत किया जाना चाहिए।
- आर्द्रभूमियों के संरक्षण को सतत विकास लक्ष्यों, वैश्विक जैव विविधता संधियों और जलवायु समझौतों के अनुरूप बनाए जाने की आवश्यकता है।
- जैव विविधता की हानि, जलवायु परिवर्तन और महामारी जैसे संकटों ने आर्द्रभूमियों के संरक्षण की अनिवार्यता को और भी बढ़ा दिया है।
भारत में आर्द्रभूमि संरक्षण की दिशा में प्रयास
- भारत ने 1.33 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में फैले 75 रामसर स्थलों को नामित किया है, जो कुल 15.98 मिलियन हेक्टेयर आर्द्रभूमि क्षेत्र का लगभग 8% है।
- राष्ट्रीय वेटलैंड एटलस (2017-18) के अनुसार, भारत की 66.6% आर्द्रभूमियाँ प्राकृतिक हैं, जिनमें से 43.9% अंतर्देशीय और 22.7% तटीय हैं।
- हालांकि, शहरीकरण और प्रदूषण के कारण भारत की 30% प्राकृतिक आर्द्रभूमियाँ पिछले चार दशकों में समाप्त हो चुकी हैं।
प्रमुख शहरों में आर्द्रभूमि ह्रास के चिंताजनक आंकड़े:
- मुंबई (1970-2014): 71% आर्द्रभूमि नष्ट।
- कोलकाता (1991-2021): 36% की गिरावट।
- चेन्नई: 85% आर्द्रभूमि समाप्त।
आर्द्रभूमियों के क्षरण का आर्थिक प्रभाव
- पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं में कमी के कारण आर्थिक एवं सामाजिक स्थिरता प्रभावित हो रही है।
- कोलंबिया में किए गए एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि शहरी आर्द्रभूमियों के क्षरण से प्रति हेक्टेयर वार्षिक आर्थिक क्षति 76,827 अमेरिकी डॉलर तक हो सकती है।
- भारत में शहरी आर्द्रभूमियों की हानि से प्रति हेक्टेयर 30,354 अमेरिकी डॉलर की वार्षिक आर्थिक क्षति का अनुमान लगाया गया है।
संरक्षण के लिए आवश्यक रणनीतियाँ
- पारिस्थितिकी आधारित दृष्टिकोण अपनाकर, आर्द्रभूमियों को सतत विकास योजनाओं के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
- जलवायु परिवर्तन शमन में इनकी भूमिका के लिए सतत निगरानी और वैज्ञानिक मूल्यांकन आवश्यक है।
- प्रभावी जल प्रबंधन, भूमि उपयोग योजनाओं और सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था के माध्यम से इनका संरक्षण सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
- स्थानीय समुदायों की भागीदारी को बढ़ावा देना होगा ताकि संरक्षण की दिशा में जमीनी स्तर पर प्रभावी प्रयास किए जा सकें।
निष्कर्ष
आर्द्रभूमियाँ जैव विविधता, जलवायु स्थिरता और पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखने के लिए अपरिहार्य हैं। इनके निरंतर क्षरण को रोकने के लिए एकीकृत नीतियाँ, स्थायी प्रबंधन प्रथाएँ और समुदायों की सहभागिता आवश्यक है। संरक्षण प्रयासों को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए, इन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विकास योजनाओं के केंद्र में रखना होगा।
आपकी राय क्या है?
आपके विचार में आर्द्रभूमि संरक्षण के लिए सबसे प्रभावी रणनीति क्या हो सकती है? क्या आपके क्षेत्र में आर्द्रभूमियों के संरक्षण के लिए कोई पहल चल रही है? अपने विचार हमें कमेंट सेक्शन में जरूर बताएं!
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